न चाह है …. किसी खुशी की ,
न चाह है … किसी मंज़िल की ,
बस चाह है.... एक सफर की !
जो हो ... शून्य से अन्नत तक !!
माना मैं एक ‘शून्य’ हूँ ,
शून्य से सब होता है शुरू !
गूंगा आईना है... मुझसे कहता ,
जो न किया अब तक ... वो करूँ ।
मुश्किले लाख मुझसे गले मिले ,
आँसू पाँव मे गिर कर चुभने लगे ,
आँधियाँ रोक मुझे ... मेरी मंज़िल पूछने लगे ,
या ....रास्ते हो पत्थर के बने !
फिर भी ...
बस चाह है.... एक सफर की !
जो हो ... शून्य से अन्नत तक !!
सोचता हूँ....
मंज़िल की परिभासा बदलूँ ,
जो एक नही .... अपार है !
जिस मंज़िल को तू ... हर पल सोच रहा है ,
वही तेरा संसार है ।
जानता हूँ ....
अनंत सफर की ... अनंत रुकावटे
रास्ता देख रही होंगी मेरा !
जो मेरा सूरज.... कल डूब गया था ,
वो एक दिन ... हौसलों की रोशनी मे देखेगा ... नया सवेरा ।
इसलिए ...
बस चाह है.... एक सफर की !
जो हो ... शून्य से अन्नत तक !!
© Vishal Maurya
नोट -
रचना आपको कैसे लगी हमे अवश्य बताए !
Faadu
ReplyDelete